Tuesday, October 9, 2007

उत्तराखंड में लोकगीतों की विशेष पहचान

उत्तराखंड के लोक जीवन में अलग ही ताल और लय है जिसकी छाप यहाँ के लोकगीत एवं लोकनृत्यों में साफतौर पर परिलक्षित होती है। यहाँ के लोकगीत नृत्य केवल मनोरंजन ही नहीं बल्कि लोक जीवन के अच्छे-बुरे अनुभवों एवं उनसे सीख लेने की प्रेरणा भी देते हैं।

संस्कृति एवं कला परिषद से मिली जानकारी के अनुसार वैश्वीकरण के दौर में इन लोक कलाओं का महत्व और भी बढ़ गया है। ये लोकगीत-लोकनृत्य आडियो-वीडियो के माध्यम से आय के साधन बन गए हैं। जगह-जगह इनके प्रस्तुतीकरण से कलाकारों की अच्छी कमाई हो रही है।

हालाँकि आधुनिक परिवेश के समयचक्र में पहाड़ों में बहुत सारे लोकगीत नृत्य विलुप्त हो गए हैं लेकिन बचे हुए लोकगीतों और नृत्यों की अपनी विशेष पहचान है। यहाँ लगभग दर्जन भर लोकगीतों की विधाएँ आज भी अस्तित्व में हैं जिनमें चैती गीत चौंफला, चांछडी और झुमैलो सामूहिक रूप से किए जाने वाले गीत-नृत्य हैं।

शरदकालीन त्योहारों में चांछडी और झुमैलों पहले ही शामिल थें लेकिन अब बासंती खुशी का विशेष गीत चौंफला भी इन त्योहारों में गाया जाने लगा है। झुमैंलो और चांछडी तथा चौंफला तीनों गीतों में पुरुष और महिलाओं की टोली बनाकर या एक ही घेरे में नृत्य किया जाता है। तीनों के नृत्य की शैली भिन्न है किंतु तीनों में श्रृंगार एवं भाव प्रधान होते है।

थडिया गीत भी इसी मौसम में गाया जाता है और ये गीत चौक तथा थडों (आंगन) में गाए जाते हैं इसीलिए इन्हें थडिया गीत कहा जाता है। इसके अलावा इन गीतों की विशिष्ट गायन एवं नृत्य शैली को भी थडिया कहा जाता है।

पांडवों के साथ जुड़ी घटनाओं पर आधारित पंडावर्त शैली के लोक नृत्य वास्तव में नृत्य नाटिका के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। ये लोकनृत्य 20 लोकनाट्यों में 32 तालों एवं 100 अलग-अलग स्वर लिपि में आबद्ध होते हैं।

टिहरी और उत्तरकाशी जिले में मंडाण लोकनृत्य ढोल-दमाऊँ पर किया जाता है। इनको चार ताल में किया जाता है जिसमें देवी-देवताओं के आह्वान के गीत शामिल हैं। देव जात्रा, जात और शुभ कार्य शादी विवाह एवं चूड़ाक्रम आदि अवसरों पर इसकी प्रस्तुति की जाती है।

उत्तरकाशी तथा टिहरी जिले के जौनपुर क्षेत्र में तांदि नृत्य को खुशी के अवसरों पर और माघ के पूरे महीनें में पेश किया जाता है तथा इस नृत्य के साथ में गाए जाने वाले गीत सामाजिक घटनाओं पर आधारित होते हैं, जिन्हें सामूहिक रूप से रचा जाता है। झुमैला सामूहिक नृत्य है जो बिना वाद्ययंत्रों के दीपावली और कार्तिक के महीने में रात भर गाया जाता है।

ऐसी मान्यता है कि जागर और पंवाडे लोकनृत्य गीत देवी-देवताओं को नचवाने के लिए किए जाते हैं। देवी-देवताओं की कथाओं पर आधारित गायन और छंदबद्ध कथावाचन (गाथा) के प्रस्तुतीकरण इस विधा का रोचक पक्ष है। गायन-वादन के लिए विशेष रूप से गुरु शिष्य परंपरा से प्रशिक्षित व्यक्ति ही आमंत्रित किए जाते हैं जिनका आज भी यही रोजगार है।

गढ़वाल में सरौं और छोलिया तथा पौंणा नृत्य प्रसिद्ध हैं। तीनों की शैलियाँ अलग-अलग हैं लेकिन भाव वीर रस एवं शौर्य प्रधान सामग्री का प्रयोग तीनों में किया जाता है। सरौं नृत्य में ढोलवादक मुख्य किरदार में होते हैं जबकि छोलिया और पौंणा नृत्य में वादक और नर्तक के साझे करतब परिपूर्णता प्रदान करते हैं।

इन नृत्यों में सतरंगी पोशाक, ढोल-दमाऊँ, नगाड़े, झंकोरा तथा कैंसाल और रणसिंगा वाद्य यंत्र एवं ढाल-तलवार अनिवार्य है। इन नृत्य गीतों में पचास साठ कलाकर एक साथ शामिल होते हैं।

वीरान किंतु सुरम्य पहाड़ी वादियों में जंगल में घास काटती गढ़वाली महिलाओं की अलग गायन शैली है। विरह वेदना से व्यथित अथवा उदास पर्वतीय नारी के मन की पीड़ा इन गीतों की स्वर लहरियों में फूट पड़ती है। बिना वादन और नृत्य के ये गीत आज भी गढ़वाल के दूर-दराज जंगलों में घसियारियों द्वारा गाए जाते हैं।

[source: एमएसएन भारत ]

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